सख़्त तकलीफ़ उठाई है तुझे जानने में
इस लिए अब तुझे आराम से पहचानते हैं
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नहीं देखता दिन जिसे चश्म-ए-शब देखती है
बैज़ा-ए-नूर
जिस्म का कूज़ा है अपना और न ये दरिया-ए-जाँ
हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है
तू फ़राहम न हो मुझ को ये है मर्ज़ी तेरी
हम ने परिंद-ए-वस्ल के पर काट डाले हैं
उम्र बे-वज्ह गुज़ारे भी नहीं जा सकते
ख़लल आया न हक़ीक़त में न अफ़्साना बना
कभी इस रौशनी की क़ैद से बाहर भी निकलो तुम
देखते ही देखते खोने से पहले देखते
पेश-ओ-पस
दबा पड़ा है कहीं दश्त में ख़ज़ाना मिरा