उस जगह जा के वो बैठा है भरी महफ़िल में
अब जहाँ मेरे इशारे भी नहीं जा सकते
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रूह को तो इक ज़रा सी रौशनी दरकार है
ये तेरा मेरा झगड़ा है दुनिया को बीच में क्यूँ डालें
रास्ता दे ऐ हुजूम-ए-शहर घर जाएँगे हम
असीर-ए-ख़ाक भी हूँ ख़ाक से रिहा भी हूँ मैं
चाकरी में रह के इस दुनिया की मोहमल हो गए थे
बहुत मुमकिन था हम दो जिस्म और इक जान हो जाते
मेरी मिट्टी का नसब बे-सर-ओ-सामानी से
इक हवा सा मिरे सीने से मिरा यार गया
एक ग़ज़ल कहते हैं इक कैफ़िय्यत तारी कर लेते हैं
ख़ुद से इंकार को हम-ज़ाद किया है मैं ने
दिनी हैं सब कोई राती नहीं है
किस की है ये तस्वीर जो बनती नहीं मुझ से