उस से मिलने के लिए जाए तो क्या जाए कोई
उस ने दरवाज़े पे आईना लगा रक्खा है
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ख़लल आया न हक़ीक़त में न अफ़्साना बना
मैं जब कभी उस से पूछता हूँ कि यार मरहम कहाँ है मेरा
जो इश्क़ चाहता है वो होना नहीं है आज
वस्ल की रात में हम रात में बह जाते हैं
जिस्म जब महव-ए-सुख़न हों शब-ए-ख़ामोशी से
ऐ ख़ुदा मेरी रगों में दौड़ जा
सब ने'मतें हैं शहर में इंसान ही नहीं
आ मुझे छू के हरा रंग बिछा दे मुझ पर
ठोकरें खा के सँभलना नहीं आता है मुझे
सब लज़्ज़तें विसाल की बेकार करते हो
तेरे सूरज को तिरी शाम से पहचानते हैं
कैसी बला-ए-जाँ है ये मुझ को बदन किए हुए