कोई ठहरता नहीं यूँ तो वक़्त के आगे
मगर वो ज़ख़्म कि जिस का निशाँ नहीं जाता
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यूँ मुसल्लत तो धुआँ जिस्म के अंदर तक है
वो ख़ाली हाथ सफ़र-ए-आब पर रवाना हुआ
रौशनी से किस तरह पर्दा करेंगे
जाने क्या ऐसा उसे मुझ में नज़र आया था
इस राज़ के बातिन तक पहुँचा ही नहीं कोई
अब के जुनूँ हुआ तो गरेबाँ को फाड़ कर
मसअला ये है कि उस के दिल में घर कैसे करें
कटी पहाड़ सी शब इंतिज़ार करते हुए
दिल की ये आग बुझा दी किस ने
ये और बात कि वो तिश्ना-ए-जवाब रहा
ख़याल उस का कहाँ से कहाँ नहीं जाता