ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा
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ऐ 'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत
अब शहर में कहाँ रहे वो बा-वक़ार लोग
ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना
पलकों पर अपनी कौन मुझे अब सजाएगा
ये तमाशा दीदनी ठहरा मगर देखेगा कौन
सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना
हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
शख़्सियत का ये तवाज़ुन तेरा हिस्सा है 'फ़ज़ा'
आँखों के ख़्वाब दिल की जवानी भी ले गया
रूह और बदन दोनों दाग़ दाग़ हैं यारो