किस तरह उम्र को जाते देखूँ
वक़्त को आँखों से ओझल कर दे
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अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया
कहाँ वो लोग जो थे हर तरफ़ से नस्तालीक़
पाया-ए-ख़िश्त-ओ-ख़ज़फ़ और गुहर से ऊँचा
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
अब शहर में कहाँ रहे वो बा-वक़ार लोग
जबीं पे गर्द है चेहरा ख़राश में डूबा
अब मुनासिब नहीं हम-अस्र ग़ज़ल को यारो
ज़िंदगी ख़ुद को न इस रूप में पहचान सकी
चंद साँसें हैं मिरा रख़्त-ए-सफ़र ही कितना
चेहरा सालिम न नज़र ही क़ाएम
छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना