अब मुनासिब नहीं हम-अस्र ग़ज़ल को यारो
किसी बजती हुई पाज़ेब का घुंघरू लिखना
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ऐ 'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत
सवाल सख़्त था दरिया के पार उतर जाना
हाथ फैलाओ तो सूरज भी सियाही देगा
लहू ही कितना है जो चश्म-ए-तर से निकलेगा
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
तुझे हवस हो जो मुझ को हदफ़ बनाने की
बहुत जुमूद था बे-हौसलों में क्या करता
इक़रा की सौग़ात की सूरत आ
किस तरह उम्र को जाते देखूँ
सराब-ए-जिस्म को सहरा-ए-जाँ में रख देना
छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
बिसात-ए-दानिश-ओ-हर्फ़-ओ-हुनर कहाँ खोलें