आँखों के ख़्वाब दिल की जवानी भी ले गया
वो अपने साथ मेरी कहानी भी ले गया
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राएगाँ सब कुछ हुआ कैसी बसीरत क्या हुनर
हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
जला है शहर तो क्या कुछ न कुछ तो है महफ़ूज़
अब मुनासिब नहीं हम-अस्र ग़ज़ल को यारो
ज़मीन चीख़ रही है कि आसमान गिरा
हम हसीन ग़ज़लों से पेट भर नहीं सकते
वही रिवायत गज़ीदा-दानिश वही हिकायत किताब वाली
छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
लहू हमारी जबीं का किसी के चेहरे पर
लहू ही कितना है जो चश्म-ए-तर से निकलेगा
पलकों पर अपनी कौन मुझे अब सजाएगा
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'