पलकों पर अपनी कौन मुझे अब सजाएगा
मैं हूँ वो रंग जो तिरे पैकर से कट गया
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वही रिवायत गज़ीदा-दानिश वही हिकायत किताब वाली
छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
चंद साँसें हैं मिरा रख़्त-ए-सफ़र ही कितना
ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना
लहू हमारी जबीं का किसी के चेहरे पर
अब शहर में कहाँ रहे वो बा-वक़ार लोग
लोग मुझ को मिरे आहंग से पहचान गए
चेहरा सालिम न नज़र ही क़ाएम
जला है शहर तो क्या कुछ न कुछ तो है महफ़ूज़
मुद्दतों के बाद फिर कुंज-ए-हिरा रौशन हुआ
देखना हैं खेलने वालों की चाबुक-दस्तियाँ