ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना
न आया हम को बरहना गुज़ारिशें लिखना
Wasi Shah
Jaun Eliya
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Gulzar
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Allama Iqbal
Habib Jalib
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हाथ फैलाओ तो सूरज भी सियाही देगा
ये तमाशा दीदनी ठहरा मगर देखेगा कौन
सराब-ए-जिस्म को सहरा-ए-जाँ में रख देना
मुझे मंज़ूर काग़ज़ पर नहीं पत्थर पे लिख देना
वही रिवायत गज़ीदा-दानिश वही हिकायत किताब वाली
किसी लम्हे तो ख़ुद से ला-तअल्लुक़ भी रहो लोगो
चंद साँसें हैं मिरा रख़्त-ए-सफ़र ही कितना
राएगाँ सब कुछ हुआ कैसी बसीरत क्या हुनर
तुझे हवस हो जो मुझ को हदफ़ बनाने की
जबीं पे गर्द है चेहरा ख़राश में डूबा
पाया-ए-ख़िश्त-ओ-ख़ज़फ़ और गुहर से ऊँचा