ये तमाशा दीदनी ठहरा मगर देखेगा कौन
हो गए हम राख तो दस्त-ए-दुआ रौशन हुआ
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खुला न मुझ से तबीअत का था बहुत गहरा
लहू ही कितना है जो चश्म-ए-तर से निकलेगा
अब मुनासिब नहीं हम-अस्र ग़ज़ल को यारो
किस तरह उम्र को जाते देखूँ
हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
हम हसीन ग़ज़लों से पेट भर नहीं सकते
वही रिवायत गज़ीदा-दानिश वही हिकायत किताब वाली
ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
तुझे हवस हो जो मुझ को हदफ़ बनाने की
मुद्दतों के बाद फिर कुंज-ए-हिरा रौशन हुआ
किसी लम्हे तो ख़ुद से ला-तअल्लुक़ भी रहो लोगो