यूँ मआनी से बहुत ख़ास है रिश्ता अपना
ज़िंदगी कट गई लफ़्ज़ों को ख़बर करने में
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ये तमाशा दीदनी ठहरा मगर देखेगा कौन
मैं ख़ुद हूँ नक़्द मगर सौ उधार सर पर है
मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कुहन में ऐसा
बहुत जुमूद था बे-हौसलों में क्या करता
लोग मुझ को मिरे आहंग से पहचान गए
मुझे मंज़ूर काग़ज़ पर नहीं पत्थर पे लिख देना
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
जबीं पे गर्द है चेहरा ख़राश में डूबा
मुझे तराश के रख लो कि आने वाला वक़्त
शख़्सियत का ये तवाज़ुन तेरा हिस्सा है 'फ़ज़ा'
ज़मीन चीख़ रही है कि आसमान गिरा
उदास देख के वजह-ए-मलाल पूछेगा