मुझे तराश के रख लो कि आने वाला वक़्त
ख़ज़फ़ दिखा के गुहर की मिसाल पूछेगा
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और क्या मुझ से कोई साहिब-नज़र ले जाएगा
नुत्क़ से लब तक है सदियों का सफ़र
फ़ुज़ूल शय हूँ मिरा एहतिराम मत करना
किस तरह उम्र को जाते देखूँ
सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना
अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया
किसी लम्हे तो ख़ुद से ला-तअल्लुक़ भी रहो लोगो
हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
सराब-ए-जिस्म को सहरा-ए-जाँ में रख देना
ज़िंदगी ख़ुद को न इस रूप में पहचान सकी
यूँ मआनी से बहुत ख़ास है रिश्ता अपना
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'