नुत्क़ से लब तक है सदियों का सफ़र
ख़ामुशी ये दुख भला झेलेगी क्या
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उदास देख के वजह-ए-मलाल पूछेगा
किस तरह उम्र को जाते देखूँ
ज़िंदगी ख़ुद को न इस रूप में पहचान सकी
कहाँ वो लोग जो थे हर तरफ़ से नस्तालीक़
एक दिन ग़र्क़ न कर दे तुझे ये सैल-ए-वजूद
ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना
वो मेल-जोल हुस्न ओ बसीरत में अब कहाँ
अब मुनासिब नहीं हम-अस्र ग़ज़ल को यारो
मैं ख़ुद हूँ नक़्द मगर सौ उधार सर पर है
जुरअत-ए-इज़हार से रोकेगी क्या
ज़मीन चीख़ रही है कि आसमान गिरा
हम हसीन ग़ज़लों से पेट भर नहीं सकते