एक दिन ग़र्क़ न कर दे तुझे ये सैल-ए-वजूद
देख हो जाए न पानी कहीं सर से ऊँचा
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छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
मुझे मंज़ूर काग़ज़ पर नहीं पत्थर पे लिख देना
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया
कहाँ वो लोग जो थे हर तरफ़ से नस्तालीक़
रूह और बदन दोनों दाग़ दाग़ हैं यारो
किसी लम्हे तो ख़ुद से ला-तअल्लुक़ भी रहो लोगो
मुद्दतों के बाद फिर कुंज-ए-हिरा रौशन हुआ
ज़मीन चीख़ रही है कि आसमान गिरा
ख़बर मुझ को नहीं मैं जिस्म हूँ या कोई साया हूँ
बहुत जुमूद था बे-हौसलों में क्या करता
ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना