देखना हैं खेलने वालों की चाबुक-दस्तियाँ
ताश का पत्ता सही मेरा हुनर तेरा हुनर
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खुला न मुझ से तबीअत का था बहुत गहरा
न दामनों में यहाँ ख़ाक-ए-रहगुज़र बाँधो
अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया
कहाँ वो लोग जो थे हर तरफ़ से नस्तालीक़
सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना
चंद साँसें हैं मिरा रख़्त-ए-सफ़र ही कितना
जला है शहर तो क्या कुछ न कुछ तो है महफ़ूज़
आह को बाद-ए-सबा दर्द को ख़ुशबू लिखना
सवाल सख़्त था दरिया के पार उतर जाना
मुद्दतों के बाद फिर कुंज-ए-हिरा रौशन हुआ