ज़फ़र कलीम कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़फ़र कलीम

ज़फ़र कलीम कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़फ़र कलीम
नामज़फ़र कलीम
अंग्रेज़ी नामZafar Kaleem

वाए ख़ुश-फ़हमी कि पर्वाज़-ए-यक़ीं से भी गए

तब्-ए-रौशन को मिरी कुछ इस तरह भाई ग़ज़ल

सिमटूँ तो सिफ़्र सा लगूँ फैलूँ तो इक जहाँ हूँ मैं

सर्द रुतों में लोगों को गर्मी पहुँचाने वाले हाथ

फूला-फला शजर तो समर पर भी आएगा

नवा-ए-हक़ पे हूँ क़ातिल का डर अज़ीज़ नहीं

मुझ को समझो न हर्फ़-ए-ग़लत की तरह

खुल गईं आँखें कि जब दुनिया का सच हम पर खुला

खिड़की से महताब न देखो

इन दिनों मैं ग़ुर्बतों की शाम के मंज़र में हूँ

हो चुकी हिजरत तो फिर क्या फ़र्ज़ है घर देखना

गुमान तक में न था महव-ए-यास कर देगा

घर से निकाले पाँव तो रस्ते सिमट गए

चल पड़े तो फिर अपनी धुन में बे-ख़बर बरसों

बख़्त जागे तो जहाँ-दीदा सी हो जाती है

बात मेहंदी से लहू तक आ गई

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