वाए ख़ुश-फ़हमी कि पर्वाज़-ए-यक़ीं से भी गए
आसमाँ छूने की ख़्वाहिश में ज़मीं से भी गए
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इन दिनों मैं ग़ुर्बतों की शाम के मंज़र में हूँ
सिमटूँ तो सिफ़्र सा लगूँ फैलूँ तो इक जहाँ हूँ मैं
बख़्त जागे तो जहाँ-दीदा सी हो जाती है
तब्-ए-रौशन को मिरी कुछ इस तरह भाई ग़ज़ल
खिड़की से महताब न देखो
चल पड़े तो फिर अपनी धुन में बे-ख़बर बरसों
सर्द रुतों में लोगों को गर्मी पहुँचाने वाले हाथ
घर से निकाले पाँव तो रस्ते सिमट गए
गुमान तक में न था महव-ए-यास कर देगा
हो चुकी हिजरत तो फिर क्या फ़र्ज़ है घर देखना
मुझ को समझो न हर्फ़-ए-ग़लत की तरह
खुल गईं आँखें कि जब दुनिया का सच हम पर खुला