ऐ 'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत
मेरे लफ़्ज़ों से उफ़ुक़ इक दूसरा रौशन हुआ
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खुला न मुझ से तबीअत का था बहुत गहरा
छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
ये तमाशा दीदनी ठहरा मगर देखेगा कौन
अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया
और क्या मुझ से कोई साहिब-नज़र ले जाएगा
सवाल सख़्त था दरिया के पार उतर जाना
न दामनों में यहाँ ख़ाक-ए-रहगुज़र बाँधो
जबीं पे गर्द है चेहरा ख़राश में डूबा
चंद साँसें हैं मिरा रख़्त-ए-सफ़र ही कितना
वक़्त ने किस आग में इतना जलाया है मुझे
किसी लम्हे तो ख़ुद से ला-तअल्लुक़ भी रहो लोगो