वक़्त ने किस आग में इतना जलाया है मुझे
जिस क़दर रौशन था मैं उस से सिवा रौशन हुआ
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बिसात-ए-दानिश-ओ-हर्फ़-ओ-हुनर कहाँ खोलें
सराब-ए-जिस्म को सहरा-ए-जाँ में रख देना
ज़मीन चीख़ रही है कि आसमान गिरा
अब शहर में कहाँ रहे वो बा-वक़ार लोग
ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना
फ़ुज़ूल शय हूँ मिरा एहतिराम मत करना
न दामनों में यहाँ ख़ाक-ए-रहगुज़र बाँधो
अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया
आँखों के ख़्वाब दिल की जवानी भी ले गया
सवाल सख़्त था दरिया के पार उतर जाना
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ