तुझे हवस हो जो मुझ को हदफ़ बनाने की
मुझे भी तीर की सूरत कमाँ में रख देना
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चंद साँसें हैं मिरा रख़्त-ए-सफ़र ही कितना
अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया
न दामनों में यहाँ ख़ाक-ए-रहगुज़र बाँधो
जला है शहर तो क्या कुछ न कुछ तो है महफ़ूज़
कहाँ वो लोग जो थे हर तरफ़ से नस्तालीक़
छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
ख़बर मुझ को नहीं मैं जिस्म हूँ या कोई साया हूँ
ये तमाशा दीदनी ठहरा मगर देखेगा कौन
तलाश-ए-मअ'नी-ए-मक़्सूद इतनी सहल न थी
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
शख़्सियत का ये तवाज़ुन तेरा हिस्सा है 'फ़ज़ा'
इक़रा की सौग़ात की सूरत आ