जला है शहर तो क्या कुछ न कुछ तो है महफ़ूज़
कहीं ग़ुबार कहीं रौशनी सलामत है
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पाया-ए-ख़िश्त-ओ-ख़ज़फ़ और गुहर से ऊँचा
चंद साँसें हैं मिरा रख़्त-ए-सफ़र ही कितना
खुला न मुझ से तबीअत का था बहुत गहरा
छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
तलाश-ए-मअ'नी-ए-मक़्सूद इतनी सहल न थी
सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना
और क्या मुझ से कोई साहिब-नज़र ले जाएगा
नुत्क़ से लब तक है सदियों का सफ़र
आह को बाद-ए-सबा दर्द को ख़ुशबू लिखना
मैं ख़ुद हूँ नक़्द मगर सौ उधार सर पर है
बहुत जुमूद था बे-हौसलों में क्या करता
ज़मीन चीख़ रही है कि आसमान गिरा