हम हसीन ग़ज़लों से पेट भर नहीं सकते
दौलत-ए-सुख़न ले कर बे-फ़राग़ हैं यारो
Rahat Indori
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वो मेल-जोल हुस्न ओ बसीरत में अब कहाँ
कहाँ वो लोग जो थे हर तरफ़ से नस्तालीक़
चेहरा सालिम न नज़र ही क़ाएम
किस तरह उम्र को जाते देखूँ
ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना
छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
न दामनों में यहाँ ख़ाक-ए-रहगुज़र बाँधो
सवाल सख़्त था दरिया के पार उतर जाना
फ़ुज़ूल शय हूँ मिरा एहतिराम मत करना
हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
ऐ 'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत