हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
किताब का न कोई दर्स मो'तबर निकला
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चेहरा सालिम न नज़र ही क़ाएम
मुझे तराश के रख लो कि आने वाला वक़्त
आह को बाद-ए-सबा दर्द को ख़ुशबू लिखना
खुला न मुझ से तबीअत का था बहुत गहरा
ख़बर मुझ को नहीं मैं जिस्म हूँ या कोई साया हूँ
न दामनों में यहाँ ख़ाक-ए-रहगुज़र बाँधो
अब शहर में कहाँ रहे वो बा-वक़ार लोग
हाथ फैलाओ तो सूरज भी सियाही देगा
वही रिवायत गज़ीदा-दानिश वही हिकायत किताब वाली
फ़ुज़ूल शय हूँ मिरा एहतिराम मत करना
ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना
सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना