वो मेल-जोल हुस्न ओ बसीरत में अब कहाँ
जो सिलसिला था फूल का पत्थर से कट गया
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तलाश-ए-मअ'नी-ए-मक़्सूद इतनी सहल न थी
ख़बर मुझ को नहीं मैं जिस्म हूँ या कोई साया हूँ
बहुत जुमूद था बे-हौसलों में क्या करता
राएगाँ सब कुछ हुआ कैसी बसीरत क्या हुनर
आँखों के ख़्वाब दिल की जवानी भी ले गया
पलकों पर अपनी कौन मुझे अब सजाएगा
वही रिवायत गज़ीदा-दानिश वही हिकायत किताब वाली
ज़मीन चीख़ रही है कि आसमान गिरा
ये तमाशा दीदनी ठहरा मगर देखेगा कौन
पाया-ए-ख़िश्त-ओ-ख़ज़फ़ और गुहर से ऊँचा
अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया
चेहरा सालिम न नज़र ही क़ाएम