तलाश-ए-मअ'नी-ए-मक़्सूद इतनी सहल न थी
मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ उतरता गया बहुत गहरा
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अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया
बिसात-ए-दानिश-ओ-हर्फ़-ओ-हुनर कहाँ खोलें
जबीं पे गर्द है चेहरा ख़राश में डूबा
उदास देख के वजह-ए-मलाल पूछेगा
नुत्क़ से लब तक है सदियों का सफ़र
छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कुहन में ऐसा
वो मेल-जोल हुस्न ओ बसीरत में अब कहाँ
एक दिन ग़र्क़ न कर दे तुझे ये सैल-ए-वजूद
सवाल सख़्त था दरिया के पार उतर जाना
मुझे तराश के रख लो कि आने वाला वक़्त
लोग मुझ को मिरे आहंग से पहचान गए