शख़्सियत का ये तवाज़ुन तेरा हिस्सा है 'फ़ज़ा'
जितनी सादा है तबीअत उतना ही तीखा हुनर
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
Mohsin Naqvi
Habib Jalib
Gulzar
Allama Iqbal
Rahat Indori
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
Jaun Eliya
Ahmad Faraz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(971) Peoples Rate This
लोग मुझ को मिरे आहंग से पहचान गए
अब शहर में कहाँ रहे वो बा-वक़ार लोग
सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना
छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
हाथ फैलाओ तो सूरज भी सियाही देगा
मुझे मंज़ूर काग़ज़ पर नहीं पत्थर पे लिख देना
अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कुहन में ऐसा
खुला न मुझ से तबीअत का था बहुत गहरा
ये तमाशा दीदनी ठहरा मगर देखेगा कौन
बहुत जुमूद था बे-हौसलों में क्या करता