ज़िंदगी ख़ुद को न इस रूप में पहचान सकी
आदमी लिपटा है ख़्वाबों के कफ़न में ऐसा
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ज़मीन चीख़ रही है कि आसमान गिरा
वही रिवायत गज़ीदा-दानिश वही हिकायत किताब वाली
लोग मुझ को मिरे आहंग से पहचान गए
खुला न मुझ से तबीअत का था बहुत गहरा
जला है शहर तो क्या कुछ न कुछ तो है महफ़ूज़
हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
अब शहर में कहाँ रहे वो बा-वक़ार लोग
किस तरह उम्र को जाते देखूँ
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
चेहरा सालिम न नज़र ही क़ाएम
मुद्दतों के बाद फिर कुंज-ए-हिरा रौशन हुआ