नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होंटों पर
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
सादा काग़ज़ पे लिख के नाम तिरा
बस तिरा नाम ही मुकम्मल है
इस से बेहतर भी नज़्म क्या होगी!
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वक़्त-1
रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले
ओस पड़ी थी रात बहुत और कोहरा था गर्माइश पर
ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी
फिर वहीं लौट के जाना होगा
लैंडस्केप
दर्द हल्का है साँस भारी है
एक ही ख़्वाब ने सारी रात जगाया है
गुलों को सुनना ज़रा तुम सदाएँ भेजी हैं
दिल में ऐसे ठहर गए हैं ग़म
रूह देखी है कभी!
ज़ख़्म कहते हैं दिल का गहना है