रात गुज़रते शायद थोड़ा वक़्त लगे
धूप उन्डेलो थोड़ी सी पैमाने में
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हवा के सींग न पकड़ो खदेड़ देती है
गुलों को सुनना ज़रा तुम सदाएँ भेजी हैं
मैं काएनात में
फूलों की तरह लब खोल कभी
सबात
भरे हैं रात के रेज़े कुछ ऐसे आँखों में
रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले
ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी
सिद्धार्थ की एक रात
देर से गूँजते हैं सन्नाटे
चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा