मकीं यहीं का है लेकिन मकाँ से बाहर है

मकीं यहीं का है लेकिन मकाँ से बाहर है

अभी वो शख़्स मिरी दास्ताँ से बाहर है

उतर भी सकता है सरतान की तरह मुझ में

वो इश्क़ जो मिरे वहम-ओ-गुमाँ से बाहर है

सवाल ये नहीं मुझ से है क्यूँ गुरेज़ाँ वो

सवाल ये है कि क्यूँ जिस्म ओ जाँ से बाहर है

न जाने कैसे तराज़ू हुआ मिरे दिल में

वो एक तीर जो तेरी कमाँ से बाहर है

मिरे वजूद का आईना पूछता है मुझे

ये अक्स कब से तिरे ख़ाक-दाँ से बाहर है

ख़ुदा-गवाह वो इस दर्जा ख़ूब-सूरत थी

कि मेरा शौक़-ए-तमाशा बयाँ से बाहर है

हमारी जेब में ख़्वाबों की रेज़गारी है

सो लेन-देन हमारा दुकाँ से बाहर है

मिरा अमीन कोई था तो वो मिरा हम-ज़ाद

और अब वही मिरे पसमाँदगाँ से बाहर है

'हसन' में हिद्दत-ए-हिज्राँ से जल भी सकता हूँ

कि मेरा जिस्म तिरे साएबाँ से बाहर है

(908) Peoples Rate This

Your Thoughts and Comments

Makin Yahin Ka Hai Lekin Makan Se Bahar Hai In Hindi By Famous Poet Hasan Abbas Raza. Makin Yahin Ka Hai Lekin Makan Se Bahar Hai is written by Hasan Abbas Raza. Complete Poem Makin Yahin Ka Hai Lekin Makan Se Bahar Hai in Hindi by Hasan Abbas Raza. Download free Makin Yahin Ka Hai Lekin Makan Se Bahar Hai Poem for Youth in PDF. Makin Yahin Ka Hai Lekin Makan Se Bahar Hai is a Poem on Inspiration for young students. Share Makin Yahin Ka Hai Lekin Makan Se Bahar Hai with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.