सब उम्मीदें मिरे आशोब-ए-तमन्ना तक थीं
बस्तियाँ हो गईं ग़र्क़ाब तो दरिया उतरा
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सुब्ह आँख खुलती है एक दिन निकलता है
याद-ए-याराँ दिल में आई हूक बन कर रह गई
दुनिया कहाँ थी पास-ए-विरासत के ज़िम्न में
दिल की दहलीज़ पे जब शाम का साया उतरा
शहर-ए-ना-पुरसाँ में कुछ अपना पता मिलता नहीं
तिश्ना-कामों को यहाँ कौन सुबू देता है
अश्कों में पिरो के उस की यादें
कौन देखे मेरी शाख़ों के समर टूटे हुए
उम्मीद का बाब लिख रहा हूँ
ऐ ख़ुदा इंसान की तक़्सीम-दर-तक़्सीम देख
कुछ न कुछ तो होता है इक तिरे न होने से