जी चाहता है तर्क-ए-मोहब्बत को बार बार
आता है एक ऐसा भी लम्हा विसाल में
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लफ़्ज़ों के हेर-फेर से बनती नहीं ग़ज़ल
कटती है शब विसाल की पलकें झपकते ही
और थोड़ा सा बिखर जाऊँ यही ठानी है
दानाइयाँ अटक गईं लफ़्ज़ों के जाल में
ख़ुद को कभी मैं पा न सका
हार कर बाज़ी फिर इक तदबीर हो जाऊँगा मैं
गरचे हल्का सा धुँदलका है तसव्वुर भी तिरा
खोए हुए पलों की कोई बात भी तो हो
ख़ाना-ए-दिल कि मोअत्तर भी बहुत लगता है
तुम्हारे साथ ये झूटे फ़क़ीर रहते हैं