अजीब बात है कीचड़ में लहलहाए कँवल
फटे पुराने से जिस्मों पे सज के रेशम आए
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राह-ए-तलब में कौन किसी का अपने भी बेगाने हैं
चाँद का हुस्न भी ज़मीन से है
कुछ भी तो अपने पास नहीं जुज़-मता-ए-दिल
ज़मीन की कोख ही ज़ख़्मी नहीं अंधेरों से
लब-ओ-रुख़्सार ओ जबीं से मिलिए
बिल-आख़िर थक हार के यारो हम ने भी तस्लीम किया
छलकती आए कि अपनी तलब से भी कम आए
यूँही वाबस्तगी नहीं होती
बुझ गया दिल तो ख़राबी हुई है
दिल सा खिलौना हाथ आया है
देख कर मेरा दश्त-ए-तन्हाई
आज की रात कटेगी क्यूँ कर साज़ न जाम न तो मेहमान