ख़ाक में दौलत-ए-पिंदार-ओ-अना मिलती है
अपनी मिट्टी से बिछड़ने की सज़ा मिलती है
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क़िस्सा एक बसंत का
एक शायर एक नज़्म
अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत
वफ़ा के बाब में कार-ए-सुख़न तमाम हुआ
और हवा चुप रही
खज़ाना-ए-ज़र-ओ-गौहर पे ख़ाक डाल के रख
जुनूँ का रंग भी हो शोला-ए-नुमू का भी हो
बारहवाँ खिलाड़ी
तमाम ख़ाना-ब-दोशों में मुश्तरक है ये बात
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
कहीं कहीं से कुछ मिसरे एक-आध ग़ज़ल कुछ शेर