कारोबार में अब के ख़सारा और तरह का है
काम नहीं बढ़ता मज़दूरी बढ़ती जाती है
Ahmad Faraz
Gulzar
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
Jaun Eliya
Anwar Masood
Javed Akhtar
Rahat Indori
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
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इक ख़्वाब ही तो था जो फ़रामोश हो गया
यही लहजा था कि मेआर-ए-सुख़न ठहरा था
डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक न बताए
दुनिया बदल रही है ज़माने के साथ साथ
ये मो'जिज़ा भी किसी की दुआ का लगता है
अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
बद-शुगूनी
पुराने दुश्मन
मिरे ख़ुदा मुझे इतना तो मो'तबर कर दे
एक शायर एक नज़्म
सुब्ह सवेरे रन पड़ना है और घमसान का रन
रोज़ इक ताज़ा क़सीदा नई तश्बीब के साथ