ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है
यहाँ वा'दों की अर्ज़ानी बहुत है
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रास आने लगी दुनिया तो कहा दिल ने कि जा
मुकालिमा
मेरा मालिक जब तौफ़ीक़ अर्ज़ानी करता है
सुख़न-ए-हक़ को फ़ज़ीलत नहीं मिलने वाली
ये बस्तियाँ हैं कि मक़्तल दुआ किए जाएँ
सुब्ह सवेरे रन पड़ना है और घमसान का रन
मिट्टी की मोहब्बत में हम आशुफ़्ता-सरों ने
ये रौशनी के तआक़ुब में भागता हुआ दिन
शहर इल्म के दरवाज़े पर
समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं
कूच
एक चराग़ और एक किताब और एक उम्मीद असासा