ये बस्तियाँ हैं कि मक़्तल दुआ किए जाएँ
दुआ के दिन हैं मुसलसल दुआ किए जाएँ
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ज़माना हो गया ख़ुद से मुझे लड़ते-झगड़ते
दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ
कोई जुनूँ कोई सौदा न सर में रक्खा जाए
शहर-आशोब
वो क्या मंज़िल जहाँ से रास्ते आगे निकल जाएँ
दिल कभी ख़्वाब के पीछे कभी दुनिया की तरफ़
इन्हीं में जीते इन्हीं बस्तियों में मर रहते
जब 'मीर' ओ 'मीरज़ा' के सुख़न राएगाँ गए
बदन-दरीदा रूहों के नाम एक नज़्म
समुंदर के किनारे एक बस्ती रो रही है
कोई मुज़्दा न बशारत न दुआ चाहती है
वो जिस के नाम की निस्बत से रौशनी था वजूद