जब 'मीर' ओ 'मीरज़ा' के सुख़न राएगाँ गए
इक बे-हुनर की बात न समझी गई तो क्या
Wasi Shah
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मिट्टी की मोहब्बत में हम आशुफ़्ता-सरों ने
यही लौ थी कि उलझती रही हर रात के साथ
उसी को बात न पहुँचे जिसे पहुँचनी हो
हर इक से पूछते फिरते हैं तेरे ख़ाना-ब-दोश
दुआ
दुनिया बदल रही है ज़माने के साथ साथ
मुंहदिम होता चला जाता है दिल साल-ब-साल
सौग़ात
ग़ैरों से दाद-ए-जौर-ओ-जफ़ा ली गई तो क्या
इंतिबाह
तुम से बिछड़ कर ज़िंदा हैं
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है