ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है
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जब 'मीर' ओ 'मीरज़ा' के सुख़न राएगाँ गए
पुराने दुश्मन
मैं चुप रहा कि वज़ाहत से बात बढ़ जाती
घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
चक-फेरी
बेटियाँ बाप की आँखों में छुपे ख़्वाब को पहचानती हैं
बद-शुगूनी
वो क्या मंज़िल जहाँ से रास्ते आगे निकल जाएँ
बारहवाँ खिलाड़ी
ये तेरे मेरे चराग़ों की ज़िद जहाँ से चली
दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ
मंज़र से हैं न दीदा-ए-बीना के दम से हैं