खुला फ़रेब-ए-मोहब्बत दिखाई देता है
अजब कमाल है उस बेवफ़ा के लहजे में
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दिल के माबूद जबीनों के ख़ुदाई से अलग
ग़म-ए-जहाँ को शर्मसार करने वाले क्या हुए
ख़्वाब देखने वाली आँखें पत्थर होंगी तब सोचेंगे
खज़ाना-ए-ज़र-ओ-गौहर पे ख़ाक डाल के रख
कोई जुनूँ कोई सौदा न सर में रक्खा जाए
दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ
मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत
एक कहानी बहुत पुरानी
अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
कूच
ये रौशनी के तआक़ुब में भागता हुआ दिन
शिकम की आग लिए फिर रही है शहर-ब-शहर