शिकम की आग लिए फिर रही है शहर-ब-शहर
सग-ए-ज़माना हैं हम क्या हमारी हिजरत क्या
Faiz Ahmad Faiz
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मुंहदिम होता चला जाता है दिल साल-ब-साल
ख़ाक में दौलत-ए-पिंदार-ओ-अना मिलती है
कहाँ के नाम ओ नसब इल्म क्या फ़ज़ीलत क्या
हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं
डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक न बताए
बन-बास
पयम्बरों से ज़मीनें वफ़ा नहीं करतीं
चक-फेरी
ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है
जुनूँ का रंग भी हो शोला-ए-नुमू का भी हो
दुआ
उमीद-ओ-बीम के मेहवर से हट के देखते हैं