डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक न बताए
ऐसी नद्दी में उतर जाने को जी चाहता है
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ज़िंदगी भर की कमाई यही मिसरे दो-चार
बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा
जुनूँ का रंग भी हो शोला-ए-नुमू का भी हो
हवाएँ अन-पढ़ हैं
सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़्ताब का सर
अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई
वफ़ा के बाब में कार-ए-सुख़न तमाम हुआ
ये वक़्त किस की रऊनत पे ख़ाक डाल गया
ख़ाक में दौलत-ए-पिंदार-ओ-अना मिलती है
समुंदरों को भी हैरत हुई कि डूबते वक़्त
शिकस्ता-पर जुनूँ को आज़माएँगे नहीं क्या
कुछ भी नहीं कहीं नहीं ख़्वाब के इख़्तियार में