ज़िंदगी भर की कमाई यही मिसरे दो-चार
इस कमाई पे तो इज़्ज़त नहीं मिलने वाली
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अबू-तालिब के बेटे
मुल्क-ए-सुख़न में दर्द की दौलत को क्या हुआ
मिट्टी की मोहब्बत में हम आशुफ़्ता-सरों ने
एक उदास शाम के नाम
मैं जिस को एक उम्र सँभाले फिरा किया
पस च-बायद-कर्द
यही लहजा था कि मेआर-ए-सुख़न ठहरा था
एक हम ही तो नहीं हैं जो उठाते हैं सवाल
समुंदरों को भी हैरत हुई कि डूबते वक़्त
घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक न बताए
कहाँ के नाम ओ नसब इल्म क्या फ़ज़ीलत क्या