ज़माना हो गया ख़ुद से मुझे लड़ते-झगड़ते
मैं अपने आप से अब सुल्ह करना चाहता हूँ
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एक ख़्वाब की दूरी पर
अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
कहीं कहीं से कुछ मिसरे एक-आध ग़ज़ल कुछ शेर
कुछ भी नहीं कहीं नहीं ख़्वाब के इख़्तियार में
मुंहदिम होता चला जाता है दिल साल-ब-साल
मैं जिस को एक उम्र सँभाले फिरा किया
ये बस्तियाँ हैं कि मक़्तल दुआ किए जाएँ
कोई जुनूँ कोई सौदा न सर में रक्खा जाए
सौग़ात
शिकस्त
एक उदास शाम के नाम
मैं जिस को अपनी गवाही में ले के आया हूँ