अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
दिल नहीं होगा तो बैअत नहीं होगी हम से
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Gulzar
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ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं
निरवान
दिल उन के साथ मगर तेग़ और शख़्स के साथ
ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है
सहरा में एक शाम
अजब तरह का है मौसम कि ख़ाक उड़ती है
एक ख़्वाब की दूरी पर
अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
जो हर्फ़-ए-हक़ की हिमायत में हो वो गुम-नामी
ग़ैरों से दाद-ए-जौर-ओ-जफ़ा ली गई तो क्या
सब चेहरों पर एक ही रंग और सब आँखों में एक ही ख़्वाब
बन-बास