मुंहदिम होता चला जाता है दिल साल-ब-साल
ऐसा लगता है गिरह अब के बरस टूटती है
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ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं
आख़िरी आदमी का रजज़
जब 'मीर' ओ 'मीरज़ा' के सुख़न राएगाँ गए
समुंदर इस क़दर शोरीदा-सर क्यूँ लग रहा है
रिंद मस्जिद में गए तो उँगलियाँ उठने लगीं
ये क़र्ज़-ए-कज-कुलही कब तलक अदा होगा
बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा
रौशन दिल वालों के नाम
मिरा ज़ेहन मुझ को रहा करे
एक शायर एक नज़्म
सितारों से भरा ये आसमाँ कैसा लगेगा
सुख़न-ए-हक़ को फ़ज़ीलत नहीं मिलने वाली