पयम्बरों से ज़मीनें वफ़ा नहीं करतीं
हम ऐसे कौन ख़ुदा थे कि अपने घर रहते
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एक कहानी बहुत पुरानी
ये वक़्त किस की रऊनत पे ख़ाक डाल गया
तमाम ख़ाना-ब-दोशों में मुश्तरक है ये बात
दुनिया बदल रही है ज़माने के साथ साथ
जैसा हूँ वैसा क्यूँ हूँ समझा सकता था मैं
वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी
तमाशा करने वालों को ख़बर दी जा चुकी है
शहर इल्म के दरवाज़े पर
यही लौ थी कि उलझती रही हर रात के साथ
पस च-बायद-कर्द
रविश में गर्दिश-ए-सय्यारगाँ से अच्छी है
अबू-तालिब के बेटे