रविश में गर्दिश-ए-सय्यारगाँ से अच्छी है
ज़मीं कहीं की भी हो आसमाँ से अच्छी है
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अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
कोई मुज़्दा न बशारत न दुआ चाहती है
एक चराग़ और एक किताब और एक उम्मीद असासा
इंतिबाह
करें तो किस से करें ना-रसाइयों का गिला
तार-ए-शबनम की तरह सूरत-ए-ख़स टूटती है
दुआ
गली-कूचों में हंगामा बपा करना पड़ेगा
हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं
ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं
अजीब ही था मिरे दौर-ए-गुमरही का रफ़ीक़
ग़म-ए-जहाँ को शर्मसार करने वाले क्या हुए