ये वक़्त किस की रऊनत पे ख़ाक डाल गया
ये कौन बोल रहा था ख़ुदा के लहजे में
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वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी
दुआ
बैलन्स-शीट
मंज़र से हैं न दीदा-ए-बीना के दम से हैं
कहीं से कोई हर्फ़-ए-मो'तबर शायद न आए
आख़िरी आदमी का रजज़
हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं
मिट्टी की मोहब्बत में हम आशुफ़्ता-सरों ने
ये सारी जन्नतें ये जहन्नम अज़ाब ओ अज्र
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़्ताब का सर
अजब तरह का है मौसम कि ख़ाक उड़ती है